Tuesday, July 3, 2007

बारिश-1

बादलों की गड़गड़ाहट के साथ
मानसून की धमक
धमक उन दिलों पर
जो देख चुके हैं
बारिश में बहती
अपनी गृहस्थी
जिसे जोड़ा था
घर में कितनी पंचायत के बाद
जिसके लिए उसने
छानमारी थी
बाजार की हर दुकान
जांच परख के
खरीदा था हर सामान
और अब फिर वो डर रही है
देख रही मानसून की शुरुआत के साथ
पानी की हर बूंद में
बहती अपनी गृहस्थी।

3 comments:

Udan Tashtari said...

अच्छी लगी रचना-किसी की मस्ती, किसी की उजड़ी बस्ती। अजब रंग दिखाता है मौसम.

Ashok Kaushik said...

मौसम पर ना अवाम का जोर होता है, ना किसी हुक्मरान का... फिर बादल देखकर घबराने की बजाय बरसात से बचने में ही भलाई है। कवि उदयभानु हंस ने कहा भी है--
जवानी में क्या प्यार की बात ना हो?
क्या दिन ही रहे-और कभी रात ना हो?
सोचो भला, क्या कभी ऐसा भी हुआ है-
कि सावन का महीना हो और बरसात ना हो...

mr kaushik said...

paani re paani tera rang kaisa...rajesh ji aap badhai ke patra hain....