Thursday, August 16, 2007

खलबली

सत्य के शब्दों का सेंसेक्स जब बढ़ता है तो लोगों में खलबली पैदा हो जाती है।
खलबली पैदा हो जाती है उन रसूखदार लोगों में जो कभी गये थे वेश्या के कोठे पर
उन्हें याद आने लगती हैं वो गलियां जहां डरते डरते रखा था उन्होंने कदम।
सत्ता के गलियारों से लेकर, खबरों के बाजार में एक डर पैदा हो जाता है
फोन पर की गईं वो सारी बातें याद आती हैं जो किसी कॉलगर्ल से रात रात भर हुई थी।

डर उन्हें भी लगता है जिन्होंने नोट की गड्डियों के बदले
झोपड़ों की उस बस्ती पर बुलडोजर चलवाया था
डर उन्हें भी लगता, जिन्होंने धमाकों के साथ शहर में
मांस के लोथड़ों को हवा में उड़ाने का जिम्मा लिया था
सब डरने लगते हैं सत्य के शब्दों से कि पता नही कौन कब उगल दें।

जिस्म के बाजार में जिस मासूम का दाम लगाया गया था
तब उसकी याददाश्त चली गई थी
उसको बेचने वालों को सुकून मिला था, कि सारे सबूत खत्म हैं
लेकिन दो साल बाद उसकी याददाश्त वापस आ गई है
अब वो मासूम समझदार भी हो गई है
लेकिन उसको बेचने वाले डरने लगे हैं उसके मुंह खोलने से।

खलबली है खलबली.......

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