Wednesday, October 6, 2010

लोकल के लोग.....




30 सितम्बर 2010,
आज के दिन आने वाला था अयोध्या के विवादित स्थल का ऐतिहासिक फैसला । सुबह सुबह गांव से पिता जी का और मेरे ससुराल से मेरी सासू मां का फोन आ गया। दोनों लोगों का मुझसे फोन पर पहला यही सवाल था कि आज ऑफिस जाओगें। मैं बिस्तर पर नींद में ही बोला, हां जरूर जाऊंगा। क्यों ? सासू मां ने कहां, यहां इलाहाबाद में बहुत तनाव है। चारों तरफ पुलिस ही पुलिस नजर आ रही है । मुंबई तो और भी खतरा होगा। हो सके तो ऑफिस न जाओं। मैंने नींद में ही उनको सांत्वना देने के लिये बोल दिया ठीक है देखता हूं । इसके बाद मुझे लगा की वाकई में आज हर घर के लोग ऐसे ही डरे होगें। मैं बिस्तर छोड़ चुका था । नीतू ( मेरी वाइफ ) से बोला, खाना आज जल्दी बना दो मुझे जल्दी ऑफिस पहुंचना है । पिता जी से और सासू मां से फोन पर हुई बात मेरी बीवी भी सुन रही थी । उसने भी मेरी तरफ उदास मन से देखा और सवाल किया सचमुच ऑफिस जाओगे। मेरे जुबान से अजानक निकला पागल हो क्या ? तुम भी सब की तरह सवाल करती हो। जानती हो जब सबकी छुट्टियां होती तब हमें ऑफिस जाना जरूरी होता है और ऐसे बवाल के वक्त तो हम लोगों का ऑफिस जाना........। मैं बिस्तर से उठ चुका था। जल्दी जल्दी तैयार होने लगा । सोचा आज ट्रेन में हो सकता है भीड़ कम हो । लोग हो सकता है अयोध्या के मसले के चलते घर से न निकले हो । लेकिन घर से निकला तो बाहर का माहौल रोज की ही तरह था । स्टेशन पहुंचा तो लोकल में लोगों की भीड़ रोज की तरह थी । ट्रेन में चढ़ा तो वहां भी रोज की तरह खड़े ही रहना पड़ा । अचानक ट्रेन के अंदर अयोध्या के फैसले पर यात्रियों में चर्चा होने लगी । ट्रेन में सभी कौम के लोग बैठे थे । साढ़े तीन बजे आयोध्या मामले पर फैसला आने वाला था । कुछ गुजराती बंधु इस मुद्दे पर बात कर रहे थे । एक शख्स बोला ये सब नेताओं की वजह से हो रहा है । आम आदमी को इससे अब क्या मतलब है । सारी आग यही नेता लोग लगाते हैं । कभी किसी नेता को मरते हुए देखा है। हम तो कहते हैं अयोध्या में विवादित स्थान पर एक तरफ मंदिर बना दो एक तरफ मस्जिद। जिसको आना हो वो आकर वहां पूजा करे या नमाज पढ़े। तभी एक शख्स की आवाज आयी, विदेश में भी ऐसा ही कोई मामला था। वहां म्युजियम बना दिया गया। मामला ही खत्म । तभी किसी ने बेसुरे राग में गाना शुरू किया, विषय विकार मिटाओं पाप हरो देवा । मेरी लोकल ट्रेन अंधेरी पहुंच चुकी थी । एक बूढ़ा शख्स चढ़ता है । तमाम गुजराती भाई उन्हें दद्दू कह कर बुलाते हैं । ( तमे आवो दादा जी, बेसो ) कुछ लोग लोकल ट्रेन में दादा जी को बैठने की जगह भी देने की गुजारिश करते हैं । लेकिन दद्दू खड़े रहते हैं । एक शख्स बोलता बताइये दद्दू करोड़ पति हैं । पास में मंहगी मंहगी गाड़ियां भी हैं। लेकिन रोज लोकल ट्रेन में खड़े होकर चलते हैं। तभी एक शख्स की आवाज आती है ये मुंबई है भाई, यहां अच्छे अच्छे लोगों को ट्रेन से चलना पड़ता है। गाड़ी से चलेगे तो अपने ऑफिस और दुकान तक समय से पहुंच ही नही सकते। लोकल की भीड़ में अयोध्या का मामला दबता जा रहा था । लोग अपने धंदे की बात पर उतर आये थे । चांदी का भाव आज 20 हजार पहुंच गया है । दिवाली में कहा जा रहे हैं। कोई बोला मैं जयपुर जा रहा हूं । गाड़ी मुंबई सेंट्र्ल पहुंच चुकी थी । मैं उतर गया वहां भी भीड़ थी । हां रोज की अपेक्षा पुलिस वाले आज ज्यादा दिखे।

अयोध्या विवाद मामले पर फैसला आ चुका था । रात को ऑफिस से जल्दी छूट गया था । लोकल से घर जा रहा था । विरार की लोकल में आज रोज की तरह थोड़ी कम भीड़ थी । खड़े होने की जगह मिल गयी । 45 मिनट का सफर तय करके अपने स्टेशन पहुंचने वाला था । लोग चुपचाप अपनी जगह पर बैठे थे या फिर खड़े थे । लेकिन जैसे स्टेशन नजदीक आया एक लड़के ने पूछा, अरे हैदर भाई कल छुट्टी है क्या। दूसरे ने जवाब दिया क्यों। अरे हमने सोचा फैसला आने के बाद कल हो सकता है कर्फ्यू वर्फ्यू लग जाये। तो घर पर आराम करे । अयोध्या फैसले से बस यही तो अपना एक फायदा हो सकता है। कम से कम छुट्टी तो मिल जायेगी। तभी स्टेशन आ गया। हैदर नामक उस लड़के ने लोकल से उतरने की पोजीशन ली और बोला चल सुरेश, गुड नाइट । कल फिर दफ्तर में मिलते हैं।

Monday, April 26, 2010

घरौंदा......



तमाम उम्र गुजारी तो घरौंदा था बना,
उम्र के साथ उसने, साथ मेरा छोड दिया ।
नोट- ये तस्वीर मैंने अपने गांव से उतारी है।

Monday, June 8, 2009

तालियां.......


दोनों हाथ से बजती तालियां उनका औजार है
उनका संगीत है
उनका वाद्ययंत्र हैं
उनकी पहिचान है
संबोधन है उनकी नपुंसकता का
जिसके दम पर वो चलाते हैं अपनी रोजी रोटी
पालते हैं अपने पापी पेट को
आज मुंबई की लोकल ट्रेन से गिरकर
एक किन्नर का, दाहिना हाथ कट गया
मैं उसे देखकर सोच रहा था
हाय... इसका अब क्या होगा।

Friday, December 26, 2008

अब तो बंदूक उठाओं यारो




सूरते हाल बताओ यारो,
क्या हुआ हमको दिखाओ यारों
वहां पे सिसकिया थीं रेला था
हमें भी कुछ तो सुनाओं यारों।

गुबार गम के, धुंआ आंसू से
जल रहे लोग, वहां सांसो से
सिमट के जिंदगी है सहमी सी
उसको एतबार दिलाओ यारों।

कराह, आह सब लिपट से गये
लाखों थे लोग सब सिमट से गये
सामने दरिया है, उफनता सा
कोई दो बूंद पिलाओं यारो।

घुटन की जिंदगी जिल्लत से भरी
अपने घर में ही इक मासूम डरी
शांति के गीत प्लीज बंद करो
अब तो बंदूक उठाओं यारों ।।

Tuesday, September 30, 2008

प्यार की पहल...




जब आने लगे घर से गलियों में वो,
आना जाना भी अपना शुरू हो गया।
अब तलक सिर्फ तकते थे हम देखकर,
देखकर मुस्कुराना शुरू हो गया।।

वो हमें देखकर भाग जाते है क्यों ,
क्यों नही देखकर पास आते है वो
जब से एहसास होने लगा प्यार का,
घर से कोई बहाना शुरू हो गया।।

क्यो हमें देखकर भाग जाते है वो,
क्यों नही देख कर पास आते हैं वो
अब तलक सिर्फ सपनों में थे छेड़ते,
रात भर अब जगाना शुरू हो गया।।

वो कली थी अभी तक खिली थी नही
कोई भंवरे से अब तक मिली थी नही
शर्म उनका सरकने लगा इस तरह
अब दुपट्टा गिरना शुरू हो गया।।

Monday, September 15, 2008

बरसों बाद घर आया.......



मकड़ियों के जालो से बंधी किताबों की पोटली को
आज मैंने देखा धूल भरे कमरे की उन अलमारियों में।

सूरज की एक रोशनी खपड़ैले छत के सुराख से झांक रही थी
देख रही थी मुझे, या फिर कोशिश पहचानने की
जो मुझे रोज जगाती थी बरसो पहले।

दबे पांव , जाना चाहता था कमरे के भीतर
दबे हाथ, छूना चाहता था उन किताबों को
जिनके साथ जुड़ी है मेरी यादे,
जिनके बल पर मिली है मुझे कामयाबी

उन किताबों के बीच धूल से सनी रखी है मेरी वो डायरी
जिनमे दबा होगा वो गुलाब का फूल,
जिसने पहली बार कराया था मुझे किसी के प्यार का एहसास।
या ये कहूं कि मेरा पहला प्यार, दबा है उस डायरी के अंदर
जो बेचैन है बाहर निकलने को।
कितने सवाल, कितनी यादे, कितने एहसास से भरा है
ये धूल भरा कमरा।
आगे बढ़ा.......

तभी अम्मा बोली मत जाओ बहुत गंदा हो गया है कमरा अभी साफ कर दूंगी तब जाना, बहुत धूल मिट्टी वहां